Thursday, February 2, 2017

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त  हिन्दी के महान कवियों में से एक थे। उनका जन्म ३ अगस्त सन १८८६ ई. में हुआ। उनके पिता-माता का नाम सेठ रामचरण कनकने और माता कौशिल्या था. उन्होंने विद्यालय के पढाई के साथ साथ घर में ही हिन्दीबंगलासंस्कृत साहित्य का अध्ययन किया। १२ वर्ष की अवस्था में उन्होनें ब्रजभाषा में कविता रचना आरम्भ किया। कालांतर में वह आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में भी आये। महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की प्रेरणा से आपने खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया।  उनकी कवितायें खड़ी बोली में मासिक "सरस्वती" में प्रकाशित होना प्रारम्भ हो गई।

"रंग में भंग', जयद्रथ वध उनकी प्रारंभिक काव्य ग्रन्थ थे. उन्होंने बंगाली के "मेघनाथ वध", "ब्रजांगना" का अनुवाद भी किया। सन् १९१४ ई. में राष्टीय भावनाओं से ओत-प्रोत "भारत भारती" का प्रकाशन किया। उनकी लोकप्रियता सर्वत्र फैल गई। सन् १९१६-१७ ई. में महाकाव्य "साकेतका लेखन प्रारम्भ किया। साकेत तथा अन्य ग्रन्थ पंचवटी आदि सन् १९३१ में पूर्ण किये। मैथिलीशरण गुप्त जी ने 5 मौलिक नाटक लिखे हैं- अनघ’, ‘चन्द्रहास’, ‘तिलोत्तमा’, ‘निष्क्रिय प्रतिरोधऔर विसर्जन

वे राष्ट्रपिता गांधी जी के निकट सम्पर्क में आये। 'यशोधरा' सन् १९३२ ई. में लिखी। गांधी जी ने उन्हें "राष्टकवि" की संज्ञा प्रदान की। सन् १९४१ ई. में व्यक्तिगत सत्याग्रह के अंतर्गत जेल गये। आगरा विश्वविद्यालय से उन्हें डी.लिट. से सम्मानित किया गया। १९५२-१९६४ तक राज्यसभा के सदस्य मनोनीत हुये। सन् १९५३ ई. में भारत सरकार ने उन्हें "पद्म विभूषण' से सम्मानित किया। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने सन् १९६२ ई. में "अभिनन्दन ग्रन्थ' भेंट किया तथा हिन्दू विश्वविद्यालय के द्वारा डी.लिट. से सम्मानित किये गये। मैथिलीशरण गुप्त को साहित्य एवं शिक्षा क्षेत्र में पद्म भूषण से १९५४ में सम्मानित किया गया।

ब्रजभाषा जैसी समृद्ध काव्य-भाषा को छोड़कर खड़ी बोली को एक काव्य-भाषा के रूप में निर्मित करने में अथक प्रयास हिन्दी कविता के इतिहास में गुप्त जी का सबसे बड़ा योगदान है। पवित्रता, नैतिकता और परंपरागत मानवीय सम्बन्धों की रक्षा गुप्त जी के काव्य के प्रथम गुण हैं. १२ दिसम्बर १९६४ ई. को उनकी मृत्यु हुई और साहित्य का जगमगाता तारा अस्त हो गया।
नर हो न निराश करो मन को
नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रह के निज नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को
संभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्व कहाँ
तुम स्वत्व-सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को

 

 



महादेवी वर्मा हिन्दी की सर्वाधिक प्रतिभावान कवयित्रियों में से हैं। उन्हें आधुनिक मीरा भी कहा गया है। महादेवी वर्मा का जन्म 26 मार्च सन् 1907 को फर्रुखाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ। महादेवी जी के माता-पिता का नाम हेमरानी देवी और बाबू गोविन्द प्रसाद वर्मा था। महादेवी वर्मा बचपन से ही शान्त एवं गम्भीर स्वभाव की थीं। उनके हृदय में शैशवावस्था से ही जीव मात्र के प्रति करुणा थी, दया थी।
महादेवी की शिक्षा 1912 में इंदौर के मिशन स्कूल से प्रारम्भ हुई. १९१९ में बाल विवाह  का दंश झेलना पड़ा तथा कुछ समय के लिए पढाई छुट गयी. बाल विवाह की वजह से जीवन के प्रति उनमें विरक्ति उत्पन्न हो गई थी।  बाद में महात्मा गांधी के सम्पर्क और प्रेरणा से उनका मन सामाजिक कार्यों की ओर उन्मुख हो गया। परन्तु बाद में 1932 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.किया. वे सात वर्ष की अवस्था से ही कविता लिखने लगी थीं और 1925 तक जब आपने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की थी, एक सफल कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताओं का प्रकाशन होने लगा था। 
महादेवी वर्मा के अन्य अनेक काव्य संकलन में प्रमुख हैं- १९३० में नीहार, १९३२ में रश्मि, १९३४ में नीरजा, तथा १९३६ में सांध्यगीत नामक उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए। दीपशिखा (1942), सप्तपर्णा (अनूदित-1959). प्रथम आयाम (1974), अग्निरेखा (1990) अन्य काव्य संग्रह हैं.

महादेवी जी कवयित्री होने के साथ-साथ विशिष्ट गद्यकार भी थीं। महादेवी वर्मा का गद्य साहित्य में प्रमुख हैं- अतीत के चलचित्र (1941) और स्मृति की रेखाएं (1943), पथ के साथी (1965) और मेरा परिवार (1972 और संस्मरण (1983), संभाषण (1974), शृंखला की कड़ियाँ (1942), विवेचनात्मक गद्य (1942), साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध (1962), संकल्पिता (1969) इत्यादि .


महादेवी वर्मा ने नारी शिक्षा प्रसार के लिए प्रयाग महिला विद्यापीठ की स्थापना की तथा वे  उसकी प्रधानाचार्य बनी | वे अपने समय की लोकप्रिय पत्रिका चाँदतथा साहित्यकारमासिक की भी संपादक रहीं। हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने प्रयाग में साहित्यकार संसदऔर रंगवाणी नाट्य संस्था की भी स्थापना की।
उन्हें अनेकों प्रशासनिक, अर्धप्रशासनिक और व्यक्तिगत सभी संस्थाओँ से पुरस्कार व सम्मान मिले।यामा नामक काव्य संकलन के लिये उन्हें भारत का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ। इस महान कवयित्री का निधन 11 सितम्बर 1987 को इलाहाबाद में हुआ था |

मैं नीर भरी दुःख की बदली

मैं नीर भरी दुःख की बदली,
स्पंदन में चिर निस्पंद बसा,
क्रंदन में आहत विश्व हँसा,
नयनो में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झनी मचली !
मैं नीर भरी दुःख की बदली !
मेरा पग पग संगीत भरा,
श्वांसों में स्वप्न पराग झरा,
नभ के नव रंग बुनते दुकूल,
छाया में मलय बयार पली !
मैं नीर भरी दुःख की बदली !
मैं क्षितिज भृकुटी पर घिर धूमिल,
चिंता का भर बनी अविरल,
रज कण पर जल कण हो बरसी,
नव जीवन अंकुर बन निकली !
मैं नीर भरी दुःख की बदली !
पथ न मलिन करते आना
पद चिन्ह न दे जाते आना
सुधि मेरे आगम की जग में
सुख की सिहरन हो अंत खिली !
मैं नीर भरी दुःख की बदली !

विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना
परिचय इतना इतिहास यही
उमटी कल थी मिट आज चली !
मैं नीर भरी दुःख की बदली !